يا عمري الذي بكى..
من وخز حنيني
اغرق بحور الشعر
بين طيفك و ندائي..
ووحشة كفي تلمس مالا يلمس..
ضوء خافت من عتمة قلبي
ووجهك يضاحك ظلي..
طوق نجاة من وهم..
عائم على وجه فصولي  
أرصفة القمح فارغة.. من كل الحب
من كل الألوان..
وضجيج الصمت يخترق جسد النسيان.. 
 يجوب مآقي الورد الباكية.. 
حديثا بلا عافية.. 
رفات أمل...
وسنديانة لا تبكي.. 
..............
 ظل حلم.. 
       كسرة أمل.. 
و مجداف... 
أحملها وتحملني
وفي الطرف الآخر من ضلع العمر.. 
كرسي... طاولة... فنجان.. 
و ايد من عشق.. 
فتات... ورماد 
 اعد خطاي.. 
نحو الضوء...     بجدائل ليلي.. 
و في سكون القلب 
صدى يناديني.. 
حي على الحب... 
فالعظام مسكونة...
بامرأة  من نار
لم تأتِ.
.................... 
لا بر لي عليه أسير.
البحر  فارغ إلا من المسافة ومني.. 
وآثار قطاف وجهك لم تنضج.. 
صبار يخرج من كم النسيان.. 
يخزني... فاجمع ذاكرتي من ذاكرتي 
اذكر موتي.. 
أني في بطن الحوت.. 
مذ صارت أحضانك مرساتي.. 
فأبكي رقصا... 
فوق رفاتي... 
 في لحد الأنات
واقص اجنحتي.




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